18 अक्तूबर, 2015

घर या अखाड़ा


चाह नहीं ऐसे दर जाने की
जहां सदा होती मनमानी
वे अपना राग अलापते
साथ चलने से कतराते
घर बना रहता सदा ही
भानुमती के कुनबे सा
चाहे जब आपा खो देते
दूसरे को सुनना न चाहते
स्वनिर्णय सर्वोपरी जान
उस पर ही चलना चाहते
मार्ग चाहे हो अवरुद्ध
बिना विचारे  बढ़ते जाते
जब भी घर में होते 
दृश्य अखाड़े जैसा होता
पहले बातें फिर वाक युद्ध
और बाद में लाठियां भांजते
हर व्यक्ति दाव अपना लगाता
अपने को सर्वोच्च मानता
पेंतरे पर पेंतरे चलता
अहंकार से भरता जाता 
बच्चे बेचारे  सहमें से 
पहले  कौने में दुबकते 
फिर पूर्ण शक्ति से रोते चिल्लाते 
बिना बात मोहल्ला जगाते
जब शोर चर्म सीमा पर होता
दर्शक भी  जुड़ते जाते
बिना टिकिट होती कुश्ती का
मजा उठाने से  कैसे चूकते 
जब अति होने लगती
 सर थामें  अपने घर जाते
सर दर्द की गोली खा
फिर  से वहां जाना न चाहते |
आशा

15 अक्तूबर, 2015

माँ जगदम्बा



माँ को श्रद्धा की  चाहत
नैवैध्य की नहीं 
निर्मल मन की भक्ति चाहिए 
कपट की नहीं |
निश  दिन जो सुमिरन करता 
बिना किसी प्रलोभन के 
वही होता प्रिय उसे 
अभयदान मिलता उसे |
माँ तो माँ है सब जानती है 
 क्या चाहिए पहचानती है |
यदि मांग कर लिया
तो क्या लिया
बिन मांगे सब मिल गया 
जिसने माँ पर बिश्वास किया |
निश्छल मन की मुराद 
पूर्ण करती है माँ 
जो भी पान फूल चढ़ाए 
स्वीकार करती है माँ  |
निर्धन का घर भरती 
शक्ति अपाहिज को देती 
कन्या को  हरी चूड़ियाँ
बाँझन को पुत्र की आशा
है सौभाग्य की दाता 
नमो नमो जगदम्बे माता |
आशा






14 अक्तूबर, 2015

शिक्षा अधूरी

शिक्षा बेटी की के लिए चित्र परिणाम
शिक्षा उसे माँ से मिली
 होना सुख दुःख की साथी
दुभांत न लाना  मन में
वरना होगी नाइंसाफी
उनके बताये मार्ग पर चली
गर्व से सर उन्नत था
चलते चलते सोच रही थी
कार्य भी कठिन न था
आगे आगे बढ़ते बढ़ते
बाधाओं ने उकसाया
सुख के साथी बहुत मिले
न अपनाया दुःख को किसी ने

 सुख दुःख की गुत्थी में उलझी
आगे बढ़ना भूल गई
जहां खडी थी वहीं रह गई
स्वप्न सजाना भूल गई
सारे स्वप्न धरे रह गए
शिक्षा कहीं अधूरी थी
कर्तव्य पूर्ण न कर पाई
अधिकार ही जता पाई |

आशा

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12 अक्तूबर, 2015

विलक्षण


विलक्षण बेवाक बेमिसाल
अद्वितीय हुस्न की मलिका
ज़माना उससे है
वह जमाने से नहीं |
यूं तो साँसों पर
पहरा लगा है
पर अवसर एक
सुनहरा मिला है |
जिन्दगी जीने की चाहत
उसे खीच रही है
 आशा निराशा के झूले में 
झूल रही है |
दुःख तो मिल ही जाते हैं 
अवसर सुख के कम होते हैं
सुख की वही  तलाश
अभी बाक़ी है |
गरल पी कर
नील कंठ होता मन  
अमृत तक पहुँच
अभी शेष  है|
कौन अपना कौन पराया
यही तो जानना है
गैरों की भीड़ में 
अपनों को पहचानना है |
हम से वह है
फिर भी है  सबसे जुदा
किसी का अक्स नहीं
मिलावट की बू नहीं |
जिन्दगी की कठिन डगर पर 
चलने की चाह है
    है सौंदर्य की प्रतिमा
प्राण प्रतीष्ठा बाक़ी है |
आशा