13 अप्रैल, 2014

कुसुम



महकती चहकती
निशा सुन्दरी श्रंगार करती
सध्य खिलते सौरभ बिखेरते
डाली पर सजे पुष्पों से |
भीनी खुशबू जब आती
उसी और खींच ले जाती
पवन से हिलती डालियाँ
श्वेत चादर सी बिछ जाती  
प्रातः वृक्ष के नीचे |
सुनहरी धुप के सान्निध्य से
कुम्हलाते पर दुखी न होते
अपने सुख दुःख भूल
जीवन जीते मस्ती से |
उनकी जीने की कला
तनिक भी यदि सीखी होती
जितनी  साँसे  मिलतीं
खुशी खुशी जी लेते
उनका भरपूर उपयोग करते |
आशा

10 अप्रैल, 2014

एक मतदाता

यह रचना एक सच्चे किस्से पर आधारित है |जब लोग अपना वोट मतदान पेटी में डाला करते थे |

एक प्रत्याशी आया
बड़े प्रलोभन लाया
टेम्पो में सब को लिया
बूथ तक ले आया |
तुमने वोट दिया
 मैंने भी वोट दिया
एक महान कार्य
 सम्पन्न किया |
एक सीधा साधा प्राणी
बड़े उत्साह से आया
लिस्ट में नाम खोज
बूथ में प्रवेश पाया |
स्याही लगवाई
जोर से गुहार लगाई
वोटिग मशीन
कहाँ है भाई |
चेहरा खुशी से
 दमकता था
जब एक साथ
 कई बटन दबाए |
उत्सुक  प्रत्याशी
पूछ बैठा
किसको वोट दिया
जवाब  मिला
सब को खुश किया |
आग बबूला प्रत्याशी
अपना आपा खो बैठा
घूंसे लात जमाए
वहीं छोड़ कर चल दिया |
चोट खाया वोटर
 सोच में डूबा
सब को खुश किया उसने
क्या गलत किया |
आशा

07 अप्रैल, 2014

वह क्या जाने पीर





वह क्या जाने पीर हार की
जो कभी हारा ही नहीं
आहत मन ही जानता है
महत्व चोट के अहसास की
सड़क से पत्थर
तभी हटाया जाता है
जब कोइ ठोकर खाता है
स्वस्थ शरीर उत्फुल्ल मन
तभी होता है जब कभी
अस्वस्थता का फैलता जहर
महसूस किया हो
बचने के लिए उससे
कई प्रयत्न किये हों |
आशा

04 अप्रैल, 2014

शब्दबाण



तरकश से निकला तीर
 बापिस नहीं आता
हृदय बींधता जब
खोता जाता संयम |
भूलना भी चाहता पर
धैर्य साथ न देता
घाव अधिक गंभीर
नासूर होता जाता |
शब्द चुभ कर रह जाते
चुभन शूल की देते
शेष रहे जीवन की
शान्ति भंग कर जाते |
कभी याद आता फेंका गया
वह मखमल में लिपटा जूता
जिसे भुलाना संभव नहीं
 केवल पीर ही देता |
वह मृदुभाषी पहले भी न था
अपेक्षा भी नहीं थी
पर यह कैसे भूल गया
 कहाँ लगेगा शब्दबाण
कितनों को आहात करेगा
प्रतिशोध का कारण तो न होगा ?

02 अप्रैल, 2014

है गुनाहगार तेरी



Photo
है वह गुनाहगार तेरी क्यूं कि
 तू भी कुछ कर सकता है
यह जज्बा तुझमें
 पैदा होने न दिया |
 है तू भी  सक्षम
 हर उस कार्य के लिए
जो वह हाथों में कर के  देती रही  
आगे पीछे घूमती रही
बिना बैसाखी चलना
 तू भूल गया |
आज भी तू कोई कदम
 उठा नहीं सकता
बिना उसके सहारे के |
प्यार और दुलार ने
तुझे अकर्मण्य बना दिया
ना कभी कुछ कर पाया
ना चाहत जागी कर्मठ बनने की
स्वयं कुछ करने की |
पहले माँ के
पल्लू से बंधा रहा
अब हो कर रह  गया है
परजीवी अपनी होनहार पत्नी का |

आशा

30 मार्च, 2014

बड़े बैनर तले

बड़े बैनर तले
खोली एक दुकान
बड़ा सा शोरूम बनाया
कर्मचारियों की फौज वहां
दिखावा है भरपूर
पर ना ही मानक
गुणवत्ता का
नाहीं मिले कुशल कारीगर
अब पछतावा हो रहा है
आखिर क्या मिला वहां
ऊंची दुकान फीके पकवान
किसी ने सच कहा है
जो चमकता है वह सोना नहीं |
आशा