26 जून, 2013

कुछ अलग सा

इतने बड़े जहान  में
महफिलें सजी बहारों की
चहुओर चहलपहल रहती
उदासी कोसों दूर दीखती |
पर वह अकिंचन
मदमस्त मलय के प्रहार  से
 आहत एकल सिक्ता कण सा
बहुत असहज हो जाता |
चमक दमक देख कर
अवांछित तत्व सा
कौने में सिमटता जाता
अपना मन टटोलना चाहता  |
लगते न जाने क्यूं वहां
सभी रिश्ते आधे अधूरे
 सतही लगते
अपनेपन से दूर
 रोज बनते बिगड़ते |
बदले जाते कपड़ों से
दिखावे से ओतप्रोत होते
एक भी नहीं उतरता
 दिल की गहराई तक |
वह वहां दिखाई देता
मखमल में लगे
 टाट के पेबंद सा
दूर जाना चाहता
 उस अछूते कौने में
जो हो आडम्बर से परे
 भीड़ भाड़ से मुक्त
जहां कोइ अपना हो
टूट कर उसे चाहे
बाहें फैलाए खडा हो
उसे अपने में समेटने को
प्यार की भाषा समझे
छिपाले उसे अपने दिल में |

आशा






17 जून, 2013

आपसी बैर

आज एक बहुत पुरानी कहानी याद आई |दो बिल्ली कहीं से एक रोटी लाईं और खाने के लिए आपस में झगड़ने लगीं |एक बन्दर उनका झगड़ा देख  रहा था |
उसने कहा क्यूं झगड़ रही हो ?मेरे पास आओ मैं हिस्सा कर देता हूँ
बिल्ली ने रोटी बन्दर को दी |उसने रोटी के दो भाग  किये |जिसमें रोटी ज्यादा थी उसमें से रोटी तोड़ीऔर खा गया |हर बार वह रोटी तोड़ता और जो हिस्सा ज्यादा दीखता उसे खा जाता |धीरे धीरे वह पूरी रोटी खा गया और बिल्लियाँ
देखती ही रह गईं |दौनों की लड़ाई में तीसरे का भला हो गया वे ठगी सी  देखती ही रह गईं |देखिये यह कविता शायद अच्छी लगे :-
धर में चिराग आया 
स्वप्नों की बारिश हुई 
बढ़ते देर ना लगी 
आशा भी बढ़ने लगी 
स्कूल गए कॉलेज गए 
पर न्याय शिक्षा से ना किया 
लक्ष तक पहुँच नहीं पाए 
जैसे तैसे धरती को छुआ 
मस्तिष्क बहुत विचलित हुआ 
पढ़ा लिखा व्यर्थ गया 
राजनीति का भूत चढ़ा
गले गले तक पंक में डूबे
पहले जो कभी दोस्त हुआ करते थे 
अब आपस में  लड़ते झगड़ते 
एक दूसरे की काट करते 
भीतर घात  करते 
देश हित भूल कर 
केवल अपना घर भरते 
आम आदमीं ठगा गया 
खुद पर ही लज्जित हुआ 
कैसा नेता चुन लिया 
देश गर्त में डुबो दिया 
आपसी लड़ाई में 
देश खोखला किया
धर के चिराग ने ही 
आशियाना जला दिया |
आशा



15 जून, 2013

मेरे पापा

माँ की ममता पिता का प्यार
पर अंतर बड़ा दोनों में
ममता की मूरत दिखाई देती 
पर पिता का प्यार छिपा रहता 
दीखता केवल अनुशासन |
लगता था तब बहुत बुरा 
जब छोटी सी बात पर भी 
डांट ही मिलती थी
भूले से भी प्रशंसा नहीं 
जब खुद पिता बन गया हूँ 
बच्चों की उलझने सुलझा रहा हूँ 
तभी जान पाया हूँ 
वे कभी गलत  न थे 
यदि तब रोकटोक न होती 
आज में इतना सक्षम न होता 
रोज याद आती है उनकी 
उनके अनुशासित दुलार की 
अपने सर पर
 उनके वरद हस्त की 
अब सोचता हूँ 
 मेरे पापा  थे सबसे अच्छे 
उनसा कोई  नहीं |
आशा









14 जून, 2013

रुसवाई का सबब

आया था तुझसे मिलने
हालेदिल बयां करने 
उदासी में गुम तुझे देख
हुआ व्यस्त कारण खोजने में |
पर सच्चाई जब सामने आई
कोइ कदम उठा न सका 
तेरे ग़म में इतना मशगूल हुआ 
उसे अपना ही ग़म समझ बैठा |
सहारा आंसुओं का लिया 
पर वे भी कमतर होते गए 
जब एक भी शेष न रहा 
खुद से ही अदावत कर बैठा |
आंसू भी जब खुश्क हुए 
और मन की बात कह न सका
प्यार का इज़हार कर न सका 
रुसवाई का सबब बन बैठा |
आशा



11 जून, 2013

घट छलका


  एक बदरा कहीं से आया 
मौसम पा अनुकूल उसने
डेरा अपना फलक पर जमाया 
 वहीं रुकने का मन बनाया |
दूजे ने पीछा किया
गरजा तरजा
वरचस्व की लड़ाई में 
उससे जा टकराया |
बाहुबल के प्रदर्शन में 
आपसी टकराव में 
दामिनी दमकी
व्योम रौशन किया |
जल  भरा घट छलका
धरती तक आया 
प्रथम वृष्टि की बूंदों से 
वृक्षों ने अवगाहन किया |
नव किशालयों ने
 पूरे उत्साह से 
हवा के  झोंकों के साथ 
वर्षा की नन्हीं बूंदों का 
दिल खोल स्वागत किया |
पंछी चहके गीत गाए
हो विभोर   टहनियों पर झूले
बिछी श्वेत चादर पुष्पों की
उनने  भी सन्मान दिया |
भीनी सुगंध पुष्पों की
 सोंधी खुशबू मिट्टी की 
गवाह उनकी हुई 
खुशनुमां मौसम को
 और हसीन कर गयी |
आशा



09 जून, 2013

शब्द प्रपात


जीवन एक झरने सा बहता 
कल कल निनाद करता 
बाधाएं अटल चट्टान सी 
मार्ग में मिलतीं 
टकराता राह बदलता 
पर विचलित ना होता 
निर्वाध गति से आगे बढ़ता
 मार्ग की हर बाधा से 
हो सहष्णु समझौता करता 
मन मुदित होता जब कोइ आता 
अपने मनोभाव जताता 
सुख दुःख मुझसे सांझा करता 
अटूट बंधन प्रेम का 
मेरे उसके बीच का
और प्रगाढ़ होता 
मन वीणा का तार 
अधिक झंकृत होता 
प्रगति पथ पर बढ़ने की
बार बार प्रेरणा देता
मैं निर्झर निर्मल 
शब्द प्रपात हो रहता |
आशा




04 जून, 2013

आवास आत्मा का

अस्थि मज्जा से बना यह पिंजर 
प्राण वायु से सिंचित 
दीखता  सहज सुन्दर 
आकृष्ट सभी को करता |
पर कितना असहाय क्षणभंगुर
कष्टों को  सह नहीं पाता
तिल तिल मिटता
बेकल रहता तिलामिलाता
किरच किरच बिखरता शीशे सा
यहीं निवास अक्षय आत्मा का 
है आभास उसे
 पिंजर के स्वभाव का |
ओढ़े रहती  अभेद्य कवच 
कभी क्षय नहीं होती 
एक से अलग होते ही 
दूसते घर की तलाश करती
अपना स्वत्व मिटने न देती |
है कितना आश्चर्य 
पिंजर नश्वर पर वह नहीं 
होते ही मुक्त उससे 
समस्त ऊर्जा समेत 
उन्मुक्त पवन सी
अनंत में विचरण करती 
सदा सोम्य बनी रहती |
जैसे ही तलाश पूर्ण होती
पिछला सब कुछ भूल
नवीन कलेवर धारण करती 
नई डगर पर चल देती |
आशा