18 सितंबर, 2015

भाव



भाव का अविर्भाव
ऐसे ही नहीं होता
बहुत जतन  करने होते हैं
तभी निखार आता
सर्वप्रथम उसका शोधन
फिर प्रक्षालन परिवर्धन
और अंत में परिमार्जन
इतनी विपदा सहते सहते
मूल भाव तिरोहित होता
परिवर्तन इतने हो जाते
नया ही कुछ प्रगट होता
मनभावन प्रस्तुति होती
पर मूल भाव रह जाता
 किसी कौने में सिमट कर
विश्वास नहीं होता  
जो सोचा न था
 वही लिखा था |
आशा





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