05 अप्रैल, 2013

बोझिल तन्हाइयां

आँखों की आँखों से बातें 
ली जज्बातों की सौगातें
कुछ हुई आत्मसात
शेष बहीं आसुओं के साथ
अश्रु थे खारे जल से 
साथ  पा कर उनका 
हुई नमकीन वे भी 
यह अनुभव कुछ कटु हुआ 
वह भाप बन कर उड़ न सका 
हुई बोझिल तन्हाइयां 
मलिन मन मस्तिष्क हुआ 
धीरज कोई न दे पाया 
कटु सत्य सामने आया 
कितनी बार किया मंथन 
आस तक न जगी झूठी
पर मैं जान गयी 
हूँ खड़ी कगार पर
कभी भी किसी भी पल 
यह साथ छूट जाएगा 
अधिक खींच न सह पाएगा 
जीवन डोर का बंधन 
जिसे समझा था अटूट 
टूटेगा बिखर जाएगा 
जाने कहाँ ले जाएगा |
आशा
 
 


12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद मार्मिक एवं ह्रदय स्पर्शी प्रस्तुति बधाई

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  2. जीवन डोर बड़ी नाज़ुक और कमज़ोर..सत्य को उद्घाटित करती सुन्दर अभिव्यक्ति...आभार...

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  3. कविता तो बहुत अच्छी है लेकिन उसका नकारात्मक स्वरुप कुछ आनंददायी नहीं है ! मन की सकारात्मकता जीवन के प्रति सही सोच को सही दिशा देती है और जीवन को खुशनुमां बनाती है इसलिए नकारात्मकता के भावों को मन में स्थान मत दीजिये !

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  4. बेहद मार्मिक और भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार.

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  5. सुन्दर और मर्मस्पर्शी रचना...
    सादर
    अनु

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