23 अप्रैल, 2013

बदलाव

गर्मीं में ये सर्द हवाएं  
कितनी अजीब लगतीं 
बेमौसम की बरसातें
जीवन अस्तव्यस्त करती |
खेतों में सूखा अनाज था 
सारा गीला हो गया 
किसान की चहरे की  खुशी 
अपने साथ ही निगल गया |
बीमारी ने धर दबोचा
छोटे बड़े सभी को
मौसम में बदलाव 
रास न आया सब को |
जाने क्या है प्रभु की मर्जी 
शान्ति नहीं रहती 
कुछ न कुछ होता रहता है 
सुखानुभूति नहींहोती |
मौसम बदला तेवर बदले
आम आदमी के पर
मन तैयार न हो पाया
हर शय से जूझने को |
आशा




12 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया प्रस्तुति !हमें भी प्रकृति के साथ साथ बदलन पड़ेगा.

    latest post बे-शरम दरिंदें !
    latest post सजा कैसा हो ?

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  2. जाने क्या है प्रभु की मर्जी
    शान्ति नहीं रहती
    कुछ न कुछ होता रहता है
    सुखानुभूति नहींहोती |sahi bat kahi aapne ..asha jee ..

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  3. बहुत दुःख होता है विदर्भ में किसान आत्महत्या की समस्या के ना सुलझ पाने से... जाने क्या है प्रभु की मर्जी ?

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  4. हर बदलाव मन माफिक नहीं होता लेकिन यही प्रकृति का नियम भी है और फितरत भी ! इसे भी झेलने के लिये तैयार रहना चाहिये ! सुंदर प्रस्तुति !

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  5. mausham badala jiwan badala,badali jiwan ki tasbire,khwab sunahe badal gye sab,jiwan ki takdire badali, sundar rachna,pida ke sab chang badal gaye ,jiwan ki tadvire badali,prbhu ki maya ,sadar

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  6. आशा जी! आपकी रचना बदलाव पढ़ी। मुझे बेबाक टिप्पणी के लिये क्षमा कीजीयेगा। रचना यद्यपि आपके स्तर की नहीं लगी तथापि चूंकि किसी रचनाकार की शून्य से उकेर कर यथार्थ के धरातल पर लायी हरेक अभिव्यक्ति एवं मौलिकता की कद्र होनी चाहिये, इसलिये इस पर टिप्पणी कर रहा हूं।
    रचना में अति सामान्य शब्दों का प्रयोग, अलंकारों, प्रतीक बिंबों का सर्वथा अभाव साहित्य की दृष्टि से खटकता है। जहां तक प्रकृति में अनचाहे बदलाव का प्रश्न है, यह निश्चय ही हमें प्रकृति आईने में झांकने को प्रेरित करती है। प्राकृतिक संतुलन की कीमत पर यदि मनुष्य सफलता का इतिहास गढ़ना चाहता है तो कदाचित् यह प्रकृति की हर कदम पर मनुष्य को चेतावनी होती है।पर मनुष्य तो मनुष्य हे, वह अपनी गलतियों से भला सीखता कहां है ?
    sadar

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