28 अप्रैल, 2012

बांसुरी

प्राण फूंके कान्हां ने 
बांस की पुगलिया में
बाँसुरी बन कर बजी
ब्रज मंडल की गलियों में
अधरामृत से कान्हां के
 स्वर मधुर उसके हुए
गुंजित हुए सराहे गए
कोई सानी  नहीं उनकी
गोपियाँ खींची चली आतीं
उसकी स्वर लहरी पर
सुधबुध खो रास रचातीं
कान्हां पर बलि बलि जातीं
जमुना तट पर कदम तले
मोह देख कान्हा का
उस बांस की पोंगली से
राधा  जली ईर्ष्या से भरी
बरजोरी की कन्हैया से
छीना उसे और छिपा आई
हाथ जोड़ मिन्नत करवाई
तभी बांसुरी लौटाई
उसे देख कान्हां के संग
ईर्ष्या कम ना हो पाई
वह सौतन सी  नजर आई |
आशा 





26 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर आशा जी...........

    बंसरी होंठों से जो लगाये रहते थे कान्हा..............
    राधा रानी जलेंगी ही.........

    सादर.

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  2. aapke "Ankha sach" ke sundar,sarthak lekhan hetu bdhai.sheershak kavita behad bhvbhini hae.
    aaj ki post bhvna pradhan or sundar hae bdhai.

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    1. संगीता जी बधाई ले लिए आभार |ऐसा ही प्रेम बनाए रखें |
      आशा

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  3. वाह...बहुत सुन्दर, सार्थक और सटीक!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  4. कल 29/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

    हलचल - एक निवेदन +आज के लिंक्स

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  5. राधा की बरजोरी का सुंदर चित्रण।

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    1. पहली बार आप मेरे ब्लॉग पर आई हैं |यहाँ आपका स्वागत है |टिप्पणी हेतु आभार |
      आशा

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  6. एक सुन्दर रचना की बधाई स्वीकारें आशा जी

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  7. कान्हा की बाँसुरी से राधा का बैर तो सर्वविदित है किन्तु इसी मुरली की धुन को सुनने के लिये उनकी अधीरता भी उतनी ही चर्चित है ! उस युग विशेष के मनमोहक संसार में ले गयी आपकी रचना ! बहुत सुन्दर !

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  8. उनकी तो लीला ही अनुपम है ..मनमोहक है..

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    1. आपकी टिप्पणी का इस ब्लॉग पर स्वागत है |
      आशा

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  9. कान्हा पर बेहतरीन प्रस्तुर्ती

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