03 दिसंबर, 2010

एक छोटी सी गली


जीवन के कई रंग देखे
इस छोटी सी गली में
भिन्न-भिन्न लोग देखे
इस सँकरी सी गली में
प्रातःकाल भ्रमण करते
बुजुर्ग दिखाई देते 
जाना पहचाना हो
या हो अनजाना
हरिओम सभी से कहते 
जैसे ही धूप चढ़ती 
सभी व्यस्त हो जाते 
कोई होता तैयार
ऑफिस जाने के लिये
कोई बैठा पेपर पढ़ता
हाथ में गर्म चाय का प्याला ले !
बच्चों की दुनिया है निराली
करते शाला जाने की तैयारी
आधे अधूरे मन से
किसी का जूता नहीं मिलता
तो किसी का बस्ता खो जाता
फिर भी नियत समय पर
ऑटो वाला आ जाता
इतना शोरशराबा होता
तब कोई काम ना हो पाता
फिर भी जीने के अंदाज का
अपना ही नजारा होता |
भरी दोपहर में काम समाप्त कर
जुड़ती पंचायत महिलाओं की
करती रहतीं सभी वकालत
अपने अपने अनुभवों की !
है विशिष्ट बात यहाँ की
हर धर्म के लोग यहाँ रहते 
इस छोटी सी तंग गली में
सभी धर्म पलते हैं
अनेकता में एकता क़ी
अद्भुत मिसाल दिखते हैं |
सारे त्यौहार यहाँ मनते 
मीठा मुँह सभी करते हैं
अगर कोई समस्या आये
सभी सहायता करते हैं |
हिलमिल कर रहते हैं सभी
छोटा भारत दिखते हैं
यथोचित सम्मान सभी का
सभी लोग करते हैं
है तो यह छोटी सी गली
पर राखी, ईद, दिवाली, होली ,
सभी यहाँ मनते हैं |


आशा

30 नवंबर, 2010

कोई नहीं बचा इससे


जाति प्रथा का जन्म हुआ था
कार्य विभाजन के आधार पर
संकुचित विचार धारा ने
घेरा इसे कालान्तर में
शहरों में दिखा कम प्रभाव
पर गाँवों में विकृत रूप हुआ
जो भी वहाँ दिखता है
मन उद्वेलित कर देता है
ऊँच नीच और छुआ छूत
हैं अनन्य हिस्से इसके
दुष्परिणाम सामने दिखते
कोई नहीं बचा इससे
आपस में बैर रखते हैं
मनमुटाव होता रहता है
असहनशील हैं इतने कि
रक्तपात से नहीं हिचकते
बलवती बदले की भावना
जब भी हो जाती है 
हो जाते हैं आक्रामक
सहानुभूति जाति की पा कर
और उग्र हो जाते हैं
है स्वभाव मानव का ऐसा
बदला पूरा ना हो जब तक
चैन उसे नहीं आता
अधिक हिंसक होता जाता
लूटपाट और डकैती
नियति बनती जाने कितनों की
इनसे मुक्ति यदि ना मिलती
चम्बल का बीहड़ बुलाता
रोज कई असहिष्णु  लेते जन्म 
आपस में उलझते रहते 
जाति प्रथा के तीखे तेवर
देते  हवा उपजते वैमनस्य को
 मानव स्वभाव की उपज
और जातिवाद की तंग गलियाँ 
कितना अहित करती हैं
 क्या उचित इन सब का होना
शांत भाव से जीने के लिए
मनुज स्वभाव बदलने के लिए
है आवश्यक इनसे बचना
और आत्मनियंत्रित होना |


आशा

29 नवंबर, 2010

ठिठुरन


कोहरे की घनी चादर 
यह ठिठुरन और
ठंडी हवा की चुभन
हम महसूस करते हैं
सब नहीं
सुबह होते हुए भी
रात के अँधेरे का अहसास
हमें होता है
सब को नहीं
आगे कदम बढ़ते जाते हैं
सड़क किनारे अलाव जलाये
कुछ बच्चे बैठे 
कदम ठिठक जाते हैं
आँखों के इशारे
उन्हें मौन निमंत्रण देते 
इस मौसम से हो कर अनजान
तुम क्यूँ बैठे हो यहाँ
ऐसा क्या खाते हो
जो इसे सहन कर पाते हो
उत्तर बहुत स्पष्ट था
रूखी रोटी और नमक मिर्च
प्रगतिशील देश के
आने वाले कर्णधार
ये नौनिहाल
क्या कल तक जी पायेंगे
दूसरा सबेरा देख पायेंगे
मन में यह विचार उठा
पर यह मेरा भ्रम था
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ 
जैसा मैंने सोचा था
अगले दिन भी
कुछ देर से ही सही
कदम उस ओर ही बढ़े
सब को सुबह चहकते पाया
लगा मौसम से सामंजस्य
उन्होंने कर लिया है
धीरे से एक उत्तर भी उछाला
कैसा मौसम कैसी ठिठुरन
अभी काम पर जाना है
सुन कर यह उत्तर
खुद को अपाहिज सा पाया
असहज सा पाया
इतने सारे गर्म कपड़ों से
तन दाब ढाँक बाहर निकले
फिर भी ठण्ड से
स्वयं को ठिठुरते पाया |


आशा

28 नवंबर, 2010

आखिर कहाँ जायेगा

चेहरे पर नकाब लगाये
या बार-बार चेहरा बदले
है वह क्या ? जान नहीं पाता
पहचान नहीं पाता|
विश्वास टूट जाता है
 चेहरे पर चेहरा देख
हर बार अजनबी अहसास
अपना सा नहीं लगता |
वादा करके मुकर जाना
हर बात को हवा देना
उस पर अडिग न रहना
कभी मेरा हो नहीं सकता|
शब्द जाल बुनने वाला
बिना बात उलझाने वाला
सरल स्वभाव हो नहीं सकता |
गैरों सा व्यवहार करके
भरी महफिल में रुलाने वाला
अवमानना करने वाला
अपना हो नहीं सकता |
दूसरे के ग़म को
हँसी में उड़ाने वाला
सतही व्यवहार वाला
खुद का भी हो नहीं सकता |
कसम खाई हो जिसने
मर मिट जाने की
किसी को न अपनाने की
ना तो खुद का ही हुआ
और ना इस दुनिया में  किसी का |
वह यदि किसी का न हुआ
तो आखिर कहाँ जायेगा
समय की उड़ती चिंगारियों से ,
अपने को कैसे बचा पायेगा |


आशा