11 सितंबर, 2010

ज्योत्सना

मैं और तुम ,
सदा से ही साथ रहते हैं ,
नहीं है शिकायत मुझे तुमसे ,
मैं जानना चाहता हूं ,
क्या काले दाग हैं,
मेरे चेहरे पर ,
वे तुमने भी कभी देखे हैं ,
चांदनी ने कहा चाँद से ,
मैं हर पल साथ रहती हूं ,
तुम्हारी शीतल किरणें बिखेरती हूं ,
व्यथित मन को शान्ति देती हूं ,
यांमिनी का सौंदर्य बढा देती हूं ,
यह तुम्हारी ही तो देंन है ,
नदी का किनारा हो ,
और चांदनी रात हो ,
लोग घंटों गुजार देते हैं ,
तुम्हारी स्निग्धता और आकर्षण ,
उन्हें बांधे रहते हैं ,
मैने तुम मैं कोई कमी नहीं देखी ,
यदि तुम्हें कोई दोष देता है ,
वह नहीं जान पाया तुमको ,
मैं बस इतना जानती हूं ,
हूं ज्योत्सना तुम्हारी ,
पृथ्वी पर विचरण करती हूं ,
जैसे ही भोर होती है ,
साथ तुम्हारे चल देती हूं |
आशा

10 सितंबर, 2010

सब से भली चुप

कुछ दिन पहले ही इस मोहल्ले में किराए पर मकान लिया था |तीन चार दिन सामान खोल कर जमाने में लग गए |
मकान बहुत बड़ा था इसलिए बहुत अच्छा लगा |एक दिन जब सो कर उठे बड़ा कोलाहल मच रहा था |बड़ा आश्चर्य हुआ मैने कारण जानना चाहा |पडोसन टीना जी ने बताया कि११० नंबर में रहने वाली आंटी को सब से झगडने में बहुत आनंद आता है |
रोज किसी न किसी के घर जाती हैं और झगडा करती हैं जब तक आधा घंटे तक लड़ नहीं लेती उन्हें मजा नही आता |आज जहां वे खडी हैं आज उनका नम्बर है |
तीन दिन बाद हमारे यहाँ भी आएंगी |और इसके बाद आपका अवसर आएगा |आप अभी से सारे दावपेच सोच कर रखना |मैने सोचा मजाक कर रहीं हैं |पर दो दिन बाद जब टीना जी का घर गुलजार नजर आया ११० नंबर वाली के आने से ,सच मैं मैं तो बहुत घबरा गई |मेरी बहू यह सुन कर बोली," मम्मी आप बिल्कुल चिंता न कीजिए ,बस आप बाहर ना आना मैं सब सम्हाल लूंगी "|
दुसरे दिन नाश्ता कर के उठे ही थे कि जोर जोर से दरवाजे पर प्रहार हुआ |शायद मुसीबत आ गई थी |मैं तो अपने कमरे मैं दुबक कर बैठ गई |११० नम्बर वाली ही आई थी|आते ही शुरू हो गईं |"अरी कहाँ हो क्या यह भी नही मालूम कि कोई
मिलने आया है "|
सीमा ने कहा ,आपको किससे काम है ,मम्मी तो मंदिर गई हैं "|
उन्हों ने तुनक कर कहा "यह भी नहीं कि बैठने को कहो |चाय पानी पूंछो |क्या तुम्हारी माँ ने यही तमीज सिखाया है "
सीमा ने कुर्सी ला कर आँगन में डाल दी |वह पहले तो बैठ गई फिर बोली ,"क्या तुम नहीं बैठोगी ? मैं अकेले ही बैठूं |यह कौनसा तरीका है मेहमान के स्वागत का ?'बिना विराम दिए फिर बोलीं "मैं कोई ऐसी वैसी हूं जो यहाँ बैठूं " |थोड़ी देर बाद
कहने लगी,"क्या तुम्हारी सास ने कुछ भी नहीं सिखाया है ?" लगभग पन्द्रह मिनिट इसी प्रकार बीत गए |
वह एकाएक तुनक कर बोली,"यहाँ तो किसी से बात करना ही फिजूल है ,
मैं कुछ भी कहूँ यह कोई जबाव ही नहीं देती |मेरा तो आज का दिन ही बर्बाद हो गया |अजीब लोग हैं ऐसा पहले कभी नहीं देखा "|
फिर दो चार गालियाँ दीं और दरवाजा खोल कर बाहर को चल दी |सीमा ने चट से दरवाजा बंद किया और चैन की सांस ली |मुझे आवाज लगाई ,"मम्मी जी आप बाहर आ जाइए |अब मुसीबत टल गई है |"
खैर आज सीमा की सूझ बूझ से लड़ने से जान छूटी |किसी ने सच ही कहा है ,"सो बात की एक बात ,सब से भली चुप "|

09 सितंबर, 2010

अधूरी कविता

मैं कविता लिखना चाहता हूं ,
उसे पूरी करना चाहता हूं ,
पर वह अधूरी रह जाती है ,
चाहता हूं परिपूर्णता ,
पर कुछ त्रुटि रह ही जाती है ,
और विचार करते करते ,
सारी रात गुजर जाती है ,
और कलम रुक जाती है ,
जैसे ही तुम्हें देखता हूं ,
मुस्कान तुम्हारे चेहरे की ,
अद्वितीय प्रभाव छोड़ जाती है ,
कविता और निखरती है ,
उसमे मुस्कान सिमट जाती है ,
काले घुंगराले कुंतल ,
जब माथे पर लहराते हैं ,
कांति तुम्हारे चेहरे की ,
कई गुना हो जाती है ,
विचार अंगड़ाई लेते हैं ,
फिर कविता मैं,
एक कड़ी और जुड़ जाती है ,
सुंदर सुगढ़ हाथ देख ,
डूब जाता हूं मैं तुम में ,
तब कलम में गति आती है
कुछ पंक्तियाँ साथ लाती है ,
चाहता हूं सामने बैठो ,
मेरी कल्पना की उड़ान बनो ,
जब डूबूं सौंदर्य के खजाने में ,
कारे कजरारे नयनों की,
भाषा समझ पाऊं ,
तभी पूर्णता ला पाउँगा ,
कविता को सवार पाऊंगा ,
पर यह भय सदा रहता है ,
तुम कहीं व्यस्त ना हो जाना ,
तुम्ही मेरी कल्पना हो ,
तुम ही मेरी प्रेरणा हो ,
मैं जब तुम्हें न पाउँगा ,
कल्पना उड़ान न भर पाएगी ,
कविता अधूरी रह जाएगी
आशा




,

08 सितंबर, 2010

व्यथा बेरोजगार की

जब अध्यनरत था ,
सफलता के शिखर पर ,
सदा रहता था ,
हर बार प्रथम आता था ,
कभी भाग्य आड़े,
नहीं आता था ,
बहुत लगन से यत्न किये ,
लिखित परीक्षा में सफल रहा ,
पर ना जाने क्यूँ ,
असफलता ही हाथ लगी ,
नौकरी ना मिल पाई ,
बार बार की असफलता ,
हीन भावना भरने लगी ,
लोगों के सामने आने से ,
घबराहट सी होने लगी ,
जब भी कोई मिलता था ,
पहला प्रश्न यही होता था ,
आजकल क्या कर रहे हो ,
मैं निरुत्तर हो जाता था ,
कभी विद्रोह भी करता था ,
तरह तरह की बातों से ,
मन में अकुलाहट होती थी ,
वेदना घर कर जाती थी ,
मन तार तार कर जाती ही ,
पानी बिना मछली की तरह ,
छटपटाहट होने लगती है ,
बेचैनी और बढ़ जाती है ,
यदि योग्यता नहीं होती ,
शायद दुःख भी नहीं होता ,
सब कुछ होते हुए भी ,
असफलता से गठबंधन ,
कुंठित करता जाता है ,
विष मन में घुलता जाता है ,
सब की हिकारत भरी दृष्टि,
मुझे अकेला कर जाती है ,
मैं क्या करूं, क्या है मेरे हाथ में ?
धन भी पास नहीं है ,
और ना कोई अनुभव है ,
जो भाग्य अजमाऊं व्यापार में ,
सोचता हूं सोचता ही रहता हूं ,
ना जाने क्या लिखा है प्रारब्ध में |
आशा

07 सितंबर, 2010

क्या उचित क्या अनुचित

संबंध बनाए ऐसे लोगों से ,
कभी दूर रहते थे जिनसे ,
की चर्चा जिन बातों की ,
क्या विश्वास किया था पहले ,
धर्म ,जाति , भाषा ,प्रान्त ,
जाने क्या सोच लिया तुमने ,
पहले भी बहुत सोचते थे ,
पर अन्याय ना सह पाते थे ,
करते थे विरोध ,
हर असंगत बात का ,
उससे नफरत भी करते थे ,
तुम्हारी यही बातें और विचार ,
लाये मुझे निकट तुम्हारे ,
पर अचानक यह बदलाव ,
मेरी समझ से बहुत परे है ,
है किसका दबाव तुम पर ,
समाज का या परिवार का ,
कहने को बाध्य नहीं करूंगी ,
पर इतना अवश्य कहूंगी ,
अंतरात्मा की अनसुनी कर ,
दूसरों के अनुसार चल कर ,
प्राप्त तुम्हें कुछ ना होगा ,
कभी इस पर दृष्टिपात करना ,
गहराई से विचार करना ,
समाज उसी पर शासन करता है ,
कमजोर जिसे समझता है ,
साहस और शक्ति है जिसमें ,
उससे किनारा कर लेता है ,
साहस है भर पूर तुममें ,
शक्ति की भी कमी नहीं है ,
पर कुछ ऐसा है अवश्य ,
जो तुम्हें बाध्य करता है,
वही सब करने के लिए ,
अनुमति जिसकी नहीं देता ,
मन या मस्तिष्क तुम्हारा ,
सामाजिक होना बुरा नहीं है ,
परम्पराएं निभाना भी हैं ,
पर सारे नियमऔर परम्पराएं ,
न्यायोचित नहीं होतीं ,
और सही भी नहीं होतीं ,
जब विकृत रूप ले लेती हैं ,
उचित यही होता है ,
मुक्ति पा लेना उनसे ,
अन्यथा संकुचित विचार ,
मन मैं घर करते जाते हैं ,
चाहे जब परिलक्षित होते हैं ,
कूप मण्डूक बना देते हैं |

आशा

06 सितंबर, 2010

वीणा के स्वर कहीं खो गए हैं

वीणा के स्वर कहीं खो गए हैं ,
मुझसे हैं नाराज ,
जाने कहाँ गुम हो गए हैं ,
उनके बिना रिक्तता ,
अनजाने ही मुझमें,
घर कर गई है ,
जब चाहे अपना,
आभास करा जाती है ,
उसे भरना बहुत मुश्किल है ,
जो कुछ भी हुआ था ,
उसकी याद दिला जाती है ,
अनेकों यत्न किये मैने ,
फिर भी उसे,
बिसरा नहीं पाती ,
बेचैनी और बढ़ती जाती ,
पहले जब वीणा बजती थी ,
तार मन के झंकृत होते थे ,
मन जीवंत हो जाता था ,
दुनिया से दूर बहुत ,
अपने में खो जाता था ,
इस बार तार जो टूटा है ,
उसे जोड़ना बहुत कठिन है ,
यदि जुड भी गया ,
तो वह मधुरता ,
शायद ही आ पायेगी ,
फिर भी हूं प्रयत्न रत ,
शायद इसे जोड़ पाऊं ,
स्वर वीणा के खोज पाऊं ,
उन में ही रम जाऊं |
आशा

05 सितंबर, 2010

है जिंदगी क्या

अंधेरी रात में ,
जब ना हो कोई साथ में ,
कटती है रात तारे गिन गिन ,
तारे का टूटना और विलुप्त हो जाना ,
किसी अपने की याद दिलाता ,
कामना पूर्ती की आस जगाता ,
आशा निराशा में डूबती उतराती ,
एकाकी जीवन नैया ,
उलझनों से बाहर निकल नहीं पाती ,
गहरे भंवर में फंसती जाती ,
लुकाछिपी करते जुगनू ,
कभी चमकते कभी छिप जाते ,
चमक दमक जिंदगी की,
नजदीक आ दिखला जाते ,
है जिंदगी क्या समझा जाते ,
असली रूप दिखा जाते ,
एक तो अंधेरी रात ,
और दूर से आती आवाज ,
डरावनी सी लगती है ,
बहुत अनजानी लगती है ,
है जिंदगी एक भूल भुलैया ,
सभी इस में खो जाते हैं ,
राह कभी तो दिखती है ,
फिर जाने कंहाँ खो जाती है ,
जब राह नहीं खोज पाते ,
अधिक भटकते जाते हैं ,
और निराश हो जाते हैं ,
यह कैसी संरचना सृष्टि की ,
कोई नहीं समझ पाया ,
ना ही कभी समझ पाएगा ,
मैं हूं एक भटका राही ,
खोजते खोजते राह ,
किसी दिन विलुप्त हो जाना है ,
भूल भुलैया मैं फस कर ,
वहीं कहीं रुक जाना है ,
पर मेरा प्रयत्न विफल ना हो ,
कोई निशान छोड़ जाना है ,
कुछ तो करके जाना है |
आशा