20 अगस्त, 2010

पहले तुम ऐसी न थीं ,

पहले तुम ऐसी ना थीं
मेरी बैरी ना थीं
मैं आज भी तुम्हें
अपना शत्रु नहीं मानता |
ऐसा क्या हुआ कि
अब पीछे से वार करती हो
कहीं दुश्मन से तो
हाथ नहीं मिला बैठी हो |
वार ही यदि करना है
पीछे से नहीं सामने से करो
पर पहले सच्चाई जान लो
दृष्टि उस पर डाल लो |
कोई लाभ नहीं होगा
अन्धेरे में तीर चलाने से
मेरे समीप आओ
मुझे समझने का यत्न करो |
मेरे पास बैठो
मैं अभी भी ना
समझ पाया हूं तुम्हें
क्यूँ दुखों का सामान
इकट्ठा करती हो |
मेरी भावनाओं से खेलती हो
बिना बात नाराज होती हो
कुछ तो बात को समझो
अभी भी देर नहीं हुई है |
आओ दिल की बात करो
बैमनस्य दूर करने के लिए
सामंजस्य स्थापित करने के लिए
कुछ तो मुझसे कहो |
ह्रदय पर रखा हुआ बोझ
कुछ तो कम होगा
जब सच्चाई जान जाओगी
मुझे समझ पाओगी
तभी शांति का अनुभव होगा|
आशा

छिपा हुआ

मन मैं छिपी भावनाओं के ,
इस अनमोल खजाने को ,
क्यूँ अब तक अनछुआ रखा ,
आखिर ऐसी क्या बात थी ,
सब की नजरों से दूर रखा ,
मन में उठी भावनाओं को ,
पहले तो लिपिबद्भ किया ,
फिर क्यूँ सुप्त प्रतिभा को ,
फलने फूलने का अवसर ना दिया ,
सब की नजरों से दूर किसी कोने में ,
इसे छिपा कर रखा,
हर बात जो मन को अच्छी लगती है ,
जीवन में अपना स्थान रखती है ,
यह अधिकार किसी को नहीं है ,
कि उसे अपने साथ ले जाए ,
कोई सपना अधूरा रह जाए ,
साथ ही चला जाए ,
जीने का यह अंदाज ऐसा भी बुरा नहीं है ,
किसी भावना से जुड़ जाएं ,
यह कोई गुनाह नहीं है ,
जो बीत गया कल फिर ना आएगा ,
आनेवाले कल का भी कोई पता नहीं ,
वर्तमान में संचित पूंजी का ,
क्यूँ ना पूर्ण उपयोग करूं ,
इस अनमोल खजाने का,
जी भर कर उपभोग करूं |
आशा


,

19 अगस्त, 2010

राखी आई राखी आई


राखी आई राखी आई
भाई बहन के स्नेह बंध का
यह त्यौहार अनोखा लाई
राखी आई राखी आई
पहन चुनरी ,मंहदी चूड़ी
बहना भी सजधज कर आई
राधा और रुकमा को लाई
राखी आई राखी आई
फैनी घेवर और मिठाई
फल और राखी बहना लाई
रंग बिरंगी राखी ला कर
अपने भैया को पहनाई
केवल धागा नहीं है राखी
रक्षा का बंधन है राखी
बांध कलाई पर राखी को
बहना देती दुआ भाई को |
आशा

18 अगस्त, 2010

क्या खोया क्या पाया मैंने


क्या खोया क्या पाया मैने
 आकलन जब भी किया 
सच्चाई जानना चाही 
मैं और उदास हो गयी 
बहुत खोया कुछ ना पाया
जब भी पीछे मुड़ कर देखा
लुटा हुआ खुद को पाया 
जाने कितने लोग मिले
केवल सतही संबंधों से
जिनके चहरे खूब खिले
यह सब मैने नहीं चाहा
अपनों को ही अपनाया
मन से सब का अच्छा चाहा
पर आत्मीय कोई ना पाया
जूझ रही हूं जिंदगी से
कुछ अच्छा नहीं लगता
चारों और  अन्धेरा लगता 
और उदासी छा जाती है
सोचती हूं ,विचारती हूं
लंबी उम्र बनी ही क्यूँ
यदि निरोगी काया होती
शायद तब अच्छा लगता
पर इससे हूं दूर बहुत
हर ओर वीराना लगता है
फिर भी मन को छलती हूं
देती हूँ झूटी सांत्वना
कभी तो समय बदलेगा
कोई अपना होगा
निराशा नहीं होगी
आशा का दीप जलेगा 
आशा

17 अगस्त, 2010

डायरी का हर पन्ना


मेरी डायरी का,
हर पन्ना खाली नहीं है ,
सब पर कुछ न कुछ लिखा है ,
जो भी लिखा है असत्य नहीं है ,
पर पढ़ा जाए जरूरी भी नहीं है ,
कुछ पन्नों पर पेन्सिल से लिखा है ,
जिसे मिटाया जा सकता है ,
कुछ नया लिख कर ,
सजाया सवारा भी जा सकता है ,
कुछ ऐसा जब भी होता है ,
जो मन के विपरीत होता है ,
डायरी में वह भी ,
होता है अंकित,
मन को लगी ठेस,
करती है बहुत व्यथित .
पर पल दो पल की खुशियाँ ,
बन जाती हैं यादगार पल ,
और दे जाती हैं शक्ति ,
उन पन्नों को भरने की ,
पेन्सिल से जो लिखा था ,
रबर से मिट भी गया ,
पर मन के पन्नों पर ,
है जो अंकित ,
उसे मिटाऊं कैसे ,
सारे प्रयत्न व्यर्थ हुए ,
उनसे छुटकारा पाऊं कैसे |
आशा

15 अगस्त, 2010

गलती उसकी इतनी सी थी

कई बार सड़क पर चौराहों पर ,
झगडों टंटों को पैर पसारे देखा है ,
अन्याय करता तो एक होता है ,
पर दृष्टाओं को उग्र होते देखा है ,
ऐसे उदाहरण अच्छा सन्देश नहीं देते ,
उलटा भय औरअसुरक्षा से ,
भर देते हैं सब को ,
बीते कल का एक दृष्य ,
जब भी सामने आता है ,
बार बार विचार आता है ,
ऐसा क्या किया था उसने ,
जो उस पर कहर टूट रहा था ,
वहां जमा जन समूह ,
उसे समूचा निगलना चाह रहा था ,
सच्चाई जब सामने आई ,
मन मैं झंझावात उठा ,
उस निरीह प्राणी के लिया ,
एक दया का भाव उठा ,
गलती उसकी इतनी सी थी ,
वह चार दिनों से भूखा था ,
जब भूख सहन ना कर पाया ,
अपने को चौराहे पर पाया ,
पहले भीख मांगना चाही ,
पर वह भी जब नहीं मिली ,
चोरी का रास्ता अपनाया ,
जैसे ही दुकान पर पहुंचा ,
रोटी के लिए हाथ बढाया ,
दुकानदार ने देख लिया ,
बहुत मारा बेदम किया ,
जन समूह भी उग्र हुआ ,
और उसे निढाल किया ,
वह टूट गया था ,
फूट फूट कर रोता था ,
वह तो काम चाहता था ,
पर कोई ऐसा नहीं था ,
जो उसे अपना लेता ,
काम के बदले रोटी देता |
आशा