20 अगस्त, 2010

पहले तुम ऐसी न थीं ,

पहले तुम ऐसी ना थीं
मेरी बैरी ना थीं
मैं आज भी तुम्हें
अपना शत्रु नहीं मानता |
ऐसा क्या हुआ कि
अब पीछे से वार करती हो
कहीं दुश्मन से तो
हाथ नहीं मिला बैठी हो |
वार ही यदि करना है
पीछे से नहीं सामने से करो
पर पहले सच्चाई जान लो
दृष्टि उस पर डाल लो |
कोई लाभ नहीं होगा
अन्धेरे में तीर चलाने से
मेरे समीप आओ
मुझे समझने का यत्न करो |
मेरे पास बैठो
मैं अभी भी ना
समझ पाया हूं तुम्हें
क्यूँ दुखों का सामान
इकट्ठा करती हो |
मेरी भावनाओं से खेलती हो
बिना बात नाराज होती हो
कुछ तो बात को समझो
अभी भी देर नहीं हुई है |
आओ दिल की बात करो
बैमनस्य दूर करने के लिए
सामंजस्य स्थापित करने के लिए
कुछ तो मुझसे कहो |
ह्रदय पर रखा हुआ बोझ
कुछ तो कम होगा
जब सच्चाई जान जाओगी
मुझे समझ पाओगी
तभी शांति का अनुभव होगा|
आशा

4 टिप्‍पणियां:

  1. मन की पीड़ा को दर्शाती एक हृदयस्पर्शी रचना ! जीवन में सामंजस्य स्थापित करने के लिये एक दूसरे की भावनाओं को समझना और उन्हें सम्मान देना नितांत आवश्यक है ! अच्छी और सारगर्भित रचना ! आभार !

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  2. सच है .. आपस में बात करना बहुत ज़रूरी है .... बहुत अच्छा लिखा है ... सार्थक ...

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  3. एक दूसरे की भावनाओं को समझना और उन्हें सम्मान देना नितांत आवश्यक है

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  4. "माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

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